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⇐पितरो का ऋणबंधनप्रत्येक मनुष्य जातक पर उसके जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण अर्थात देव ऋण, ऋषि ऋण और मातृपितृ ऋण अनिवार्य रूप से चुकाने बाध्यकारी हो जाते है। जन्म के बाद इन बाध्यकारी होने जाने वाले ऋणों से यदि प्रयास पूर्वक मुक्ति प्राप्त न की जाए तो जीवन की प्राप्तियों का अर्थ अधूरा रह जाता है। ज्योतिष के अनुसार इन दोषों से पीड़ित कुंडली शापित कुंडली कही जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त माना मामा-मामी मौसा-मौसी नाना-नानी तथा पितृ पक्ष अर्थात दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीड़ित होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है।पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट संतानाभाव संतान का स्वास्यि खराब होने या संतान का सदैव बुरी संगति जैसी स्थितियों में रहना पड़ता है। यदि संतान अपंग मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसी पर केन्द्रित हो जाता है। जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।माता-पिता के अतिरिक्त हमें जीवन में अनेक व्यक्तियों का सहयोग व सहायता प्राप्त होती है गाय बकरी आदि पशुओं से दूध मिलता है। फल फूल व अन्य साधनों से हमारा जीवन सुखमय होता है इन्हें बनाने व इनका जीवन चलाने में यदि हमने अपनी ओर से किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया तो इनका भी ऋण हमारे ऊपर हो जाता है। जन कल्याण के कार्यो में रूचि लेकर हम इस ऋण से उस ऋण हो सकते हैं। देव ऋण अर्थात देवताओं के ऋण से भी हम पीड़ित होते हैं। हमारे लिए सर्वप्रथम देवता हैं हमारे माता-पिता, परन्तु हमारे इष्टदेव का स्थान भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति भव्य व शानदार बंगला बना लेता है अपने व्यावसायिक स्थान का भी विज्ञतार कर लेता है, किन्तु उस जगत के स्वामी के स्थान के लिए सबसे अन्त में सोचता है या सोचता ही नहीं है जिसकी अनुकम्पा से समस्त ऐश्वर्य वैभव व सकल पदार्थ प्राप्त होता है। उसके लिए घर में कोई स्थान नहीं होगा तो व्यक्ति को देव ऋण से पीड़ित होना पड़ेगा। नई पीढ़ी की विचारधारा में परिवर्तन हो जाने के कारण न तो कुल देवता पर आस्था रही है और न ही लोग भगवान को मानते हैं। फलस्वरूप ईश्वर भी अपनी अदृश्य शक्ति से उन्हें नाना प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं।ऋषि ऋण के विषय में भी लिखना आवश्यक है। जिस ऋषि के गोत्र में हम जन्में हैं, उसी का तर्पण करने से हम वंचित हो जाते हैं। हम लोग अपने गोत्र को भूल चुके हैं। अतः हमारे पूर्वजों की इतनी उपेक्षा से उनका श्राप हमें पीढ़ी दर पीढ़ी परेशान करेगा। इसमें कतई संदेह नहीं करना चाहिए। जो लोग इन ऋणों से मुक्त होने के लिए उपाय करते हैं, वे प्रायः अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। परिवार में ऋण नहीं है, रोग नहीं है, गृह क्लेश नहीं है, पत्नी-पति के विचारों में सामंजस्य व एकरूपता है संताने माता-पिता का सम्मान करती हैं। परिवार के सभी लोग परस्पर मिल जुल कर प्रेम से रहते हैं। अपने सुख-दुख बांटते हैं। अपने अनुभव एक-दूसरे को बताते हैं। ऐसा परिवार ही सुखी परिवार होता है। दूसरी ओर, कोई-कोई परिवार तो इतना शापित होता है कि उसके मनहूस परिवार की संज्ञा दी जाती है। सारे के सारे सदस्य तीर्थ यात्रा पर जाते हैं अथवा कहीं सैर सपाटे पर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं और गाड़ी की दुर्घटना में सभी एक साथ मृत्यु को प्राप्त करते हैं। पीछे बच जाता है परिवार का कोई एक सदस्य समस्त जीवन उनका शोक मनाने के लिए। इस प्रकार पूरा का पूरा वंश ही शापित होता है। इस प्रकार के लोग कारण तलाशते हैं। जब सुखी थे तब न जाने किस-किस का हिस्सा हड़प लिया था। किस की संपत्ति पर अधिकार जमा लिया था। किसी निर्धन कमजोर पड़ोसी को दुख दिया था अथवा अपने वृद्धि माता-पिता की अवहेलना और दुर्दशा भी की और उसकी आत्मा से आह निकलती रही कि जा तेरा वंश ही समाप्त हो जाए। कोई पानी देने वाला भी न रहे तेरे वंश में। अतएव अपने सुखी जीवन में भी मनुष्य को डर कर चलना चाहिए। मनुष्य को पितृ ऋण उतारने का सतत प्रयास करना चाहिए। जिस परिवार में कोई दुखी होकर आत्महत्या करता है या उसे आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है तो इस परिवार का बाद में क्या हाल होगा? इस पर विचार करें। आत्महत्या करना सरल नहीं है, अपने जीवन को कोई यूं ही तो नहीं मिटा देता, उसकी आत्मा तो वहीं भटकेगी। वह आप को कैसे चैन से सोने देगी, थोड़ा विचार करें। किसी कन्या का अथवा स्त्री का बलात्कार किया जाए तो वह आप को श्राप क्यों न देगी, इस पर विचार करें। वह यदि आत्महत्या करती है, तो कसूर किसका है। उसकी आत्मा पूरे वंश को श्राप देगी। सीधी आत्मा के श्राप से बचना सहज नहीं है। आपके वंश को इसे भुगतना ही पड़ेगा, यही प्रेत बाधा दोष व यही पितृ दोष है। इसे समझें।पितृ दोष क लिए जिम्मेदार ज्योतिषीय योग:1. लग्नेश की अष्टम स्थान में स्थिति अथवा अष्टमेष की लग्न में स्थिति।2. पंचमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की पंचम में स्थिति।3. नवमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की नवम में स्थिति।4. तृतीयेश, यतुर्थेश या दशमेश की उपरोक्त स्थितियां। तृतीयेश व अष्टमेश का संबंध होने पर छोटे भाई बहनों, चतुर्थ के संबंध से माता, एकादश के संबंध से बड़े भाई, दशमेश के संबंध से पिता के कारण पितृ दोष की उत्पत्ति होती है।5. सूर्य मंगल व शनि पांचवे भाव में स्थित हो या गुरु-राहु बारहवें भाव में स्थित हो।6. राहु केतु की पंचम, नवम अथवा दशम भाव में स्थिति या इनसे संबंधित होना।7. राहु या केतु की सूर्य से युति या दृष्टि संबंध (पिता के परिवार की ओर से दोष)।8. राहु या केतु का चन्द्रमा के साथ युति या दृष्टि द्वारा संबंध (माता की ओर से दोष)। चंद्र राहु पुत्र की आयु के लिए हानिकारक।9. राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति अथवा दृष्टि संबंध (दादा अथवा गुरु की ओर से दोष)।10. मंगल के साथ राहु या केतु की युति या दृष्टि संबंध (भाई की ओर से दोष)।11. वृश्चिक लग्न या वृश्चिक राशि में जन्म भी एक कारण होता है, क्योंकि वह राशि चक्र के अष्टम स्थान से संबंधित है।12. शनि-राहु चतुर्थी या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है। मंगल राहु चतुर्थ स्थान में हो तो मामा का दोष होता है।13. यदि राहु शुक्र की युति हो तो जातक ब्राहमण का अपमान करने से पीड़ित होता है। मोटे तौर पर राहु सूर्य पिता का दोष, राहु चंद्र माता ��ा दोष, राहु बृहस्पति दादा का दोष, राहु-शनि सर्प और संतान का दोष होता है।14. इन दोषों के निराकारण के लिए सर्वप्रथम जन्मकुंडली का उचित तरीके से विश्लेषण करें और यह ज्ञात करने की चेष्टा करें कि यह दोष किस किस ग्रह से बन रहा है। उसी दोष के अनुरूप उपाय करने से आपके कष्ट समाप्त हो जायेंगे।भूत-प्रेत योनि श्राप या जीव हत्याजनित दोषविद्वानों ने अपने ग्रंथों में विभिन्न दोषों का उदाहरण दिया है और पितर दोष का संबंध बृहस्पति (गुरु) से बताया है।अगर गुरु ग्रह पर दो बुरे ग्रहों का असर हो तथा गुरु 4-8-12वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों द्वारा निर्धन हो तो यह दोष पूर्ण रूप से घटता है और यह पितर दोष पिछले पूर्वज (बाप दादा परदादा) से चला आता है, जो सात पीढ़ियों तक चलता रहता है। उदाहरण हेतु इस जन्मकुंडली को देखें जिसमें पूर्ण पितर दोष है। इनका परदादा अपने पिता का एक ही लड़का था, दादा भी अपने पिता का एक ही लड़का था। इसका बाप भी अपने पिता का भी एक ही लड़का और यह अपने बाप का एक ही लड़का है और हर बाप को अपने बेटे से सुख नहीं मिला। जब औलाद की सफलता व सुपरिणाम का समय आया तो बाप चल बसा। पितर दोष के और भी दुष्परिणाम देखे गए हैं- जैसे कई असाध्य व मंभीर प्रकार की बीमारियां जैसे दमा, शुगर इत्यादि जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं। पितर दोष का प्रभाव घर की स्त्रियों पर भी अधिक रहता है।देव दोष क्या?देव दोष ऐसे दोषों को कहते हैं जो पिछले पूर्वजों, बुजुर्गो से चलें आ रहे हैं, जिसका देवताओं से संबंध होता है। गुरु और पुरोहित तथा विद्वान पुरुषों को इनके पिछले पूर्वज मानते चले आते थे। इन्होंने उनको मानना छोड़ दिया अथवा वह पीपल जिस पर यह रहते थे, को काट दिया तो उससे देव दोष पैदा होता है। इसका असर औलाद तथा कारोबार पर विपरीत होता है। इसका संबंध बृहस्पति तथा सूर्य से होता है। बृहस्पति नीच सूर्य भी नीच या दो बुरे ग्रहों के घरे में हो तो यह दोष उत्पन्न होता है।अपने समय के अनुरूप इस जातक के भाई ने कोई रूहानी गुरु धारण कर लिया और उस गुरु के कहने पर देवी देवता पुरोहित की पूजा छोड़ दी, जिससे कारोबार में अत्यधिक हानि होती गई। रुकती नहीं। पहले इनके पूर्वज बुजुर्गादि, देवी देवता व शहीदों मृतकों को मानते थे। परन्तु इन्होंने उनको मानना पूजा आदि छोड़ दी इस कारण ऐसा हुआ। दोबारा पूजा शुरू करने पर सब ठीक है। By वनिता कासनियां पंजाब

पितरो का ऋणबंधन

प्रत्येक मनुष्य जातक पर उसके जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण अर्थात देव ऋण, ऋषि ऋण और मातृपितृ ऋण अनिवार्य रूप से चुकाने बाध्यकारी हो जाते है। जन्म के बाद इन बाध्यकारी होने जाने वाले ऋणों से यदि प्रयास पूर्वक मुक्ति प्राप्त न की जाए तो जीवन की प्राप्तियों का अर्थ अधूरा रह जाता है। ज्योतिष के अनुसार इन दोषों से पीड़ित कुंडली शापित कुंडली कही जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त माना मामा-मामी मौसा-मौसी नाना-नानी तथा पितृ पक्ष अर्थात दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।

जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीड़ित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीड़ित होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है।

पितृ ऋण के कारण व्यक्ति को मान प्रतिष्ठा के अभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ संतान की ओर से कष्ट संतानाभाव संतान का स्वास्यि खराब होने या संतान का सदैव बुरी संगति जैसी स्थितियों में रहना पड़ता है। यदि संतान अपंग मानसिक रूप से विक्षिप्त या पीड़ित है तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन उसी पर केन्द्रित हो जाता है। जन्म पत्री में यदि सूर्य पर शनि राहु-केतु की दृष्टि या युति द्वारा प्रभाव हो तो जातक की कुंडली में पितृ ऋण की स्थिति मानी जाती है।

माता-पिता के अतिरिक्त हमें जीवन में अनेक व्यक्तियों का सहयोग व सहायता प्राप्त होती है गाय बकरी आदि पशुओं से दूध मिलता है। फल फूल व अन्य साधनों से हमारा जीवन सुखमय होता है इन्हें बनाने व इनका जीवन चलाने में यदि हमने अपनी ओर से किसी प्रकार का सहयोग नहीं दिया तो इनका भी ऋण हमारे ऊपर हो जाता है। जन कल्याण के कार्यो में रूचि लेकर हम इस ऋण से उस ऋण हो सकते हैं। देव ऋण अर्थात देवताओं के ऋण से भी हम पीड़ित होते हैं। हमारे लिए सर्वप्रथम देवता हैं हमारे माता-पिता, परन्तु हमारे इष्टदेव का स्थान भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति भव्य व शानदार बंगला बना लेता है अपने व्यावसायिक स्थान का भी विज्ञतार कर लेता है, किन्तु उस जगत के स्वामी के स्थान के लिए सबसे अन्त में सोचता है या सोचता ही नहीं है जिसकी अनुकम्पा से समस्त ऐश्वर्य वैभव व सकल पदार्थ प्राप्त होता है। उसके लिए घर में कोई स्थान नहीं होगा तो व्यक्ति को देव ऋण से पीड़ित होना पड़ेगा। नई पीढ़ी की विचारधारा में परिवर्तन हो जाने के कारण न तो कुल देवता पर आस्था रही है और न ही लोग भगवान को मानते हैं। फलस्वरूप ईश्वर भी अपनी अदृश्य शक्ति से उन्हें नाना प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं।

ऋषि ऋण के विषय में भी लिखना आवश्यक है। जिस ऋषि के गोत्र में हम जन्में हैं, उसी का तर्पण करने से हम वंचित हो जाते हैं। हम लोग अपने गोत्र को भूल चुके हैं। अतः हमारे पूर्वजों की इतनी उपेक्षा से उनका श्राप हमें पीढ़ी दर पीढ़ी परेशान करेगा। इसमें कतई संदेह नहीं करना चाहिए। जो लोग इन ऋणों से मुक्त होने के लिए उपाय करते हैं, वे प्रायः अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो जाते हैं। परिवार में ऋण नहीं है, रोग नहीं है, गृह क्लेश नहीं है, पत्नी-पति के विचारों में सामंजस्य व एकरूपता है संताने माता-पिता का सम्मान करती हैं। परिवार के सभी लोग परस्पर मिल जुल कर प्रेम से रहते हैं। अपने सुख-दुख बांटते हैं। अपने अनुभव एक-दूसरे को बताते हैं। ऐसा परिवार ही सुखी परिवार होता है। दूसरी ओर, कोई-कोई परिवार तो इतना शापित होता है कि उसके मनहूस परिवार की संज्ञा दी जाती है। सारे के सारे सदस्य तीर्थ यात्रा पर जाते हैं अथवा कहीं सैर सपाटे पर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं और गाड़ी की दुर्घटना में सभी एक साथ मृत्यु को प्राप्त करते हैं। पीछे बच जाता है परिवार का कोई एक सदस्य समस्त जीवन उनका शोक मनाने के लिए। इस प्रकार पूरा का पूरा वंश ही शापित होता है। इस प्रकार के लोग कारण तलाशते हैं। जब सुखी थे तब न जाने किस-किस का हिस्सा हड़प लिया था। किस की संपत्ति पर अधिकार जमा लिया था। किसी निर्धन कमजोर पड़ोसी को दुख दिया था अथवा अपने वृद्धि माता-पिता की अवहेलना और दुर्दशा भी की और उसकी आत्मा से आह निकलती रही कि जा तेरा वंश ही समाप्त हो जाए। कोई पानी देने वाला भी न रहे तेरे वंश में। अतएव अपने सुखी जीवन में भी मनुष्य को डर कर चलना चाहिए। मनुष्य को पितृ ऋण उतारने का सतत प्रयास करना चाहिए। जिस परिवार में कोई दुखी होकर आत्महत्या करता है या उसे आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है तो इस परिवार का बाद में क्या हाल होगा? इस पर विचार करें। आत्महत्या करना सरल नहीं है, अपने जीवन को कोई यूं ही तो नहीं मिटा देता, उसकी आत्मा तो वहीं भटकेगी। वह आप को कैसे चैन से सोने देगी, थोड़ा विचार करें। किसी कन्या का अथवा स्त्री का बलात्कार किया जाए तो वह आप को श्राप क्यों न देगी, इस पर विचार करें। वह यदि आत्महत्या करती है, तो कसूर किसका है। उसकी आत्मा पूरे वंश को श्राप देगी। सीधी आत्मा के श्राप से बचना सहज नहीं है। आपके वंश को इसे भुगतना ही पड़ेगा, यही प्रेत बाधा दोष व यही पितृ दोष है। इसे समझें।
पितृ दोष क लिए जिम्मेदार ज्योतिषीय योग:
1. लग्नेश की अष्टम स्थान में स्थिति अथवा अष्टमेष की लग्न में स्थिति।
2. पंचमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की पंचम में स्थिति।
3. नवमेश की अष्टम में स्थिति या अष्टमेश की नवम में स्थिति।
4. तृतीयेश, यतुर्थेश या दशमेश की उपरोक्त स्थितियां। तृतीयेश व अष्टमेश का संबंध होने पर छोटे भाई बहनों, चतुर्थ के संबंध से माता, एकादश के संबंध से बड़े भाई, दशमेश के संबंध से पिता के कारण पितृ दोष की उत्पत्ति होती है।
5. सूर्य मंगल व शनि पांचवे भाव में स्थित हो या गुरु-राहु बारहवें भाव में स्थित हो।
6. राहु केतु की पंचम, नवम अथवा दशम भाव में स्थिति या इनसे संबंधित होना।
7. राहु या केतु की सूर्य से युति या दृष्टि संबंध (पिता के परिवार की ओर से दोष)।
8. राहु या केतु का चन्द्रमा के साथ युति या दृष्टि द्वारा संबंध (माता की ओर से दोष)। चंद्र राहु पुत्र की आयु के लिए हानिकारक।
9. राहु या केतु की बृहस्पति के साथ युति अथवा दृष्टि संबंध (दादा अथवा गुरु की ओर से दोष)।
10. मंगल के साथ राहु या केतु की युति या दृष्टि संबंध (भाई की ओर से दोष)।
11. वृश्चिक लग्न या वृश्चिक राशि में जन्म भी एक कारण होता है, क्योंकि वह राशि चक्र के अष्टम स्थान से संबंधित है।
12. शनि-राहु चतुर्थी या पंचम भाव में हो तो मातृ दोष होता है। मंगल राहु चतुर्थ स्थान में हो तो मामा का दोष होता है।
13. यदि राहु शुक्र की युति हो तो जातक ब्राहमण का अपमान करने से पीड़ित होता है। मोटे तौर पर राहु सूर्य पिता का दोष, राहु चंद्र माता ��ा दोष, राहु बृहस्पति दादा का दोष, राहु-शनि सर्प और संतान का दोष होता है।
14. इन दोषों के निराकारण के लिए सर्वप्रथम जन्मकुंडली का उचित तरीके से विश्लेषण करें और यह ज्ञात करने की चेष्टा करें कि यह दोष किस किस ग्रह से बन रहा है। उसी दोष के अनुरूप उपाय करने से आपके कष्ट समाप्त हो जायेंगे।
भूत-प्रेत योनि श्राप या जीव हत्याजनित दोष
विद्वानों ने अपने ग्रंथों में विभिन्न दोषों का उदाहरण दिया है और पितर दोष का संबंध बृहस्पति (गुरु) से बताया है।

अगर गुरु ग्रह पर दो बुरे ग्रहों का असर हो तथा गुरु 4-8-12वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों द्वारा निर्धन हो तो यह दोष पूर्ण रूप से घटता है और यह पितर दोष पिछले पूर्वज (बाप दादा परदादा) से चला आता है, जो सात पीढ़ियों तक चलता रहता है। उदाहरण हेतु इस जन्मकुंडली को देखें जिसमें पूर्ण पितर दोष है। इनका परदादा अपने पिता का एक ही लड़का था, दादा भी अपने पिता का एक ही लड़का था। इसका बाप भी अपने पिता का भी एक ही लड़का और यह अपने बाप का एक ही लड़का है और हर बाप को अपने बेटे से सुख नहीं मिला। जब औलाद की सफलता व सुपरिणाम का समय आया तो बाप चल बसा। पितर दोष के और भी दुष्परिणाम देखे गए हैं- जैसे कई असाध्य व मंभीर प्रकार की बीमारियां जैसे दमा, शुगर इत्यादि जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं। पितर दोष का प्रभाव घर की स्त्रियों पर भी अधिक रहता है।

देव दोष क्या?

देव दोष ऐसे दोषों को कहते हैं जो पिछले पूर्वजों, बुजुर्गो से चलें आ रहे हैं, जिसका देवताओं से संबंध होता है। गुरु और पुरोहित तथा  विद्वान पुरुषों को इनके पिछले पूर्वज मानते चले आते थे। इन्होंने उनको मानना छोड़ दिया अथवा वह पीपल जिस पर यह रहते थे, को काट दिया तो उससे देव दोष पैदा होता है। इसका असर औलाद तथा कारोबार पर विपरीत होता है। इसका संबंध बृहस्पति तथा सूर्य से होता है। बृहस्पति नीच सूर्य भी नीच या दो बुरे ग्रहों के घरे में हो तो यह दोष उत्पन्न होता है।

अपने समय के अनुरूप इस जातक के भाई ने कोई रूहानी गुरु धारण कर लिया और उस गुरु के कहने पर देवी देवता पुरोहित की पूजा छोड़ दी, जिससे कारोबार में अत्यधिक हानि होती गई। रुकती नहीं। पहले इनके पूर्वज बुजुर्गादि, देवी देवता व शहीदों मृतकों को मानते थे। परन्तु इन्होंने उनको मानना पूजा आदि छोड़ दी इस कारण ऐसा हुआ। दोबारा पूजा शुरू करने पर सब ठीक है।

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पुनीत एवं अनिवार्य कर्त्तव्यश्राद्ध की तिथि में इस बात का भान रहे कि आपके पित्तर किसी ना किसी रूप में स्वयं उपस्थित हैं तथा आपका उनके निमित्त श्रद्धा से किये गये कर्म से वह अवश्य ही संतुष्ट होंगे तथा आपको आशीर्वाद देंगे लेकिन अगर हमने उनके प्रति आभार कृत्तज्ञता एवं श्राद्ध कर्म नहीं किया तो वह फिर पूरे वर्ष निराशा, बेचैनी, निर्बलता एवं दुख का अनुभव करेंगे। शास्त्रों में भी श्राद्ध कर्म को हर हिन्दू का पुनीत एवं अनिवार्य कर्त्तव्य बताया गया है।ब्रह्म वैवर्त पुराण और मनुस्मृतिब्रह्म वैवर्त पुराण और मनुस्मृति में ऐसे लोगों की घोर भत्र्सना की गई है जो इस मृत्युलोक में आकर अपने पितरों को भूल जाते हैं और सांसारिक मोहमाया, अज्ञानतावश अथवा संस्कार हीनता के कारण कभी भी अपने दिव्य पितरों को याद नहीं करते है।अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्य, पुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं। श्राद्ध चंद्रिका में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि मनुष्य के लिए श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं इसलिए हर समझदार मनुष्य को पूर्ण श्रद्धा से श्राद्ध का अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिए। स्कन्द पुराण स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में कहा गया है कि श्राद्ध की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, अतएव श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।श्राद्ध पक्ष में राहुकाल में तर्पणश्राद्ध पक्ष में राहुकाल में तर्पण, श्राद्ध वर्जित है अत: इस समय में उपरोक्त कार्य नहीं करने चाहिए ।श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन गजछाया के ( मध्यान का समय ) दौरान किया जाये तो अति उत्तम है ! गजछाया दिन में 12 बजे से 2 बजे के मध्य रहती है । सुबह अथवा 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक कतई नही पहॅंचता है। यह सिर्फ रस्मअदायगी मात्र ही है ।श्राद्ध के दिन लहसुन, प्याज रहित सात्विक भोजन ही घर की रसोई में बनाना चाहिए, जिसमें उड़द की दाल, बडे, दूध-घी से बने पकवान, चावल, खीर, बेल पर लगने वाली मौसमी सब्जीयाँ जैसे- लौकी, तोरई, भिण्डी, सीताफल, कच्चे केले की सब्जी ही बनानी चाहिए । आलू, मूली, बैंगन, अरबी तथा जमीन के नीचे पैदा होने वाली सब्जियाँ पितरो के श्राद्ध के दिन नहीं बनाई जाती हैं। पितरों को खीर बहुत पसंद होती है इसलिए उनके श्राद्ध के दिन और प्रत्येक माह की अमावस्या को खीर बनाकर ब्राह्मण को भोजन के साथ खिलाने पर महान पुण्य की प्राप्ति होती है, जीवन से अस्थिरताएँ दूर होती है ।श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समयश्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय शास्त्रानुसार कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग उचित और कुछ को निषेध बताया गया है।1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण बताए गए हैं जैसे - गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं, और श्राद्ध के पश्चात गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। ।3 - श्राद्ध में भोजन में सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन लोहे अथवा स्टील के बर्तनों का उपयोग नहीं करना चाहिए |4 - रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। इसमें कुश के आसान को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है ।5 - आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।6 - श्राद्ध में केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन करना निषेध है।7 - चना, मसूर, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।8 - वृहत्पराशर में श्राद्ध की अवधि में मांस भक्षण, क्रोध, हिंसा, अनैतिक कार्य एवं स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध, मैथुन कार्य आदि का निषेध बताया गया है। कहते है की इस अवधि में मैथुन करने से पितरों को वीर्यपान करना पड़ता है जिससे उन्हें बेहद कष्ट मिलता है अत: पितृ पक्ष में व्यक्ति को सयंम अवश्य ही बरतना चाहिए ।पित्तर पक्ष में स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति के लिये तर्पण किया जाता है। कहते है इसे गृहण करने के लिये पित्तर पितृ पक्ष में अपने वंशजों के द्वार पर आस लगाये रहते है। तर्पण में पित्तरों को अर्पण किये जाने वाले जल में दूध, जौ, चावल, तिल, चन्दन, फूल मिलाये जाते है।पितृ तर्पण उसी तिथि को किया जाता हैपितृ तर्पण उसी तिथि को किया जाता है जिस तिथि को पूर्वजों का देहान्त हुआ हो जिन्हें पूर्वजों की मृत्यु की तिथि याद ना हो वह अश्विन कृष्ण अमावस्या यानि सर्वपितृमोक्ष अमावस्या को यह कार्य करते है ताकि पित्तरों को मोक्ष मार्ग दिखाया जा सके। पितृ पक्ष की नौवी तिथि जिसे मातृ नवमी भी कहते है को सुहागन महिलाओं का श्राद्ध एवं तर्पण करना चाहिए।वैसे यदि हो सके तो पूरे पितृ पक्ष में हमें अपने पित्तरों को नमन करते हुये जल में अक्षत, मीठा, चन्दन, जौ, तिल एवं फूल डालकर श्रद्धापूर्वक तर्पण करना चाहिए।कहते है पितृ पक्ष में पित्तरों के निमित उनके गोत्र तथा नाम का उच्चारण करके जो भी वस्तुएं उन्हे अर्पित की जाती है वह उन्हें उनकी योनि के हिसाब से प्राप्त होती है पित्तर योनि पर सूक्ष्म द्रव्य रूप में, देव लोक में होने पर अमृत रूप में, गन्धर्व लोक में होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में ,यक्ष योनि में पेय रूप में, दानव योनि में माँस रूप में, प्रेत योनि में रूधिर रूप में, तथा पित्तर मनुष्य योनि में हो तो उन्हे अन्न धन आदि के रूप में प्राप्त होता है।

पुनीत एवं अनिवार्य कर्त्तव्य श्राद्ध की तिथि में इस बात का भान रहे कि आपके पित्तर किसी ना किसी रूप में स्वयं उपस्थित हैं तथा आपका उनके निमित्त श्रद्धा से किये गये कर्म से वह अवश्य ही संतुष्ट होंगे तथा आपको आशीर्वाद देंगे लेकिन अगर हमने उनके प्रति आभार कृत्तज्ञता एवं श्राद्ध कर्म नहीं किया तो वह फिर पूरे वर्ष निराशा, बेचैनी, निर्बलता एवं दुख का अनुभव करेंगे। शास्त्रों में भी श्राद्ध कर्म को हर हिन्दू का पुनीत एवं अनिवार्य कर्त्तव्य बताया गया है। ब्रह्म वैवर्त पुराण और मनुस्मृति ब्रह्म वैवर्त पुराण और मनुस्मृति में ऐसे लोगों की घोर भत्र्सना की गई है जो इस मृत्युलोक में आकर अपने पितरों को भूल जाते हैं और सांसारिक मोहमाया, अज्ञानतावश अथवा संस्कार हीनता के कारण कभी भी अपने दिव्य पितरों को याद नहीं करते है। अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्य, पुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं। श्राद्ध चंद्रिका में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि मनुष्य के लिए श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं इसलिए ...