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पित्तर कौन होते है पित्तरों का महत्वसंसार के समस्त धर्मों में कहा गया है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है वरन वह किसी ना किसी रूप में बना ही रहता हे। जैसे मनुष्य कपड़ों को समय समय पर बदलते रहते है उसी तरह जीव को भी शरीर बदलने पड़ते है जिस प्रकार तमाम जीवन भर एक ही कपड़ा नहीं पहना जा सकता है उसी प्रकार आत्मा अनन्त समय तक एक ही शरीर में नही ठहर सकती है।ना जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूपःऊजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।गीता.2ए अध्याय.20अर्थात आत्मा ना तो कभी जन्म लेती है और ना ही मरती है मरना जीना तो शरीर का धर्म है शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता है। विज्ञान के अनुसार कोई भी पदार्थ कभी भी नष्ट नहीं होता है वरन् उसके रूप में परिवर्तन हो जाता है।व्यक्ति के सत्संस्कार होने के बाद यही अक्षय आत्मा पित्तर रूप में क्रियाशील रहती है तथा अपनी आत्मोन्नति के लिये प्रयासरत रहने के साथ पृथ्वी पर अपने स्वजनों एवं सुपात्रों की मदद के लिये सदैव तैयार रहती है।हिन्दु धर्म ग्रंथो में पितरों को संदेशवाहक भी कहा गया है|शास्त्रों में लिखा है..............ॐ अर्यमा न तृप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नम:।ॐ मृर्त्योमा अमृतं गमय||अर्थात, अर्यमा पितरों के देव हैं, जो सबसे श्रेष्ठ है उन अर्यमा देव को प्रणाम करता हूँ ।हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम है . आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसका अर्थ है कि हम पूरे वर्ष भर अपने देवों को समर्पित अनेकों पर्वों का आयोजन करते हैं, लेकिन हममे से बहुत लोग यह महसूस करते है की हमारी प्रार्थना देवों तक नही पहुँच प़ा रही है। हमारे पूर्वज देवों और हमारे मध्य एक सेतु का कार्य करते हैं,और जब हमारे पितृ हमारी

पित्तर कौन होते है पित्तरों का महत्व

संसार के समस्त धर्मों में कहा गया है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता है वरन वह किसी ना किसी रूप में बना ही रहता हे। जैसे मनुष्य कपड़ों को समय समय पर बदलते रहते है उसी तरह जीव को भी शरीर बदलने पड़ते है जिस प्रकार तमाम जीवन भर एक ही कपड़ा नहीं पहना जा सकता है उसी प्रकार आत्मा अनन्त समय तक एक ही शरीर में नही ठहर सकती है।

ना जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूपः

ऊजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।


गीता.2ए अध्याय.20

अर्थात आत्मा ना तो कभी जन्म लेती है और ना ही मरती है मरना जीना तो शरीर का धर्म है शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता है। विज्ञान के अनुसार कोई भी पदार्थ कभी भी नष्ट नहीं होता है वरन् उसके रूप में परिवर्तन हो जाता है।

व्यक्ति के सत्संस्कार होने के बाद यही अक्षय आत्मा पित्तर रूप में क्रियाशील रहती है तथा अपनी आत्मोन्नति के लिये प्रयासरत रहने के साथ पृथ्वी पर अपने स्वजनों एवं सुपात्रों की मदद के लिये सदैव तैयार रहती है।

हिन्दु धर्म ग्रंथो में पितरों को संदेशवाहक भी कहा गया है|

शास्त्रों में लिखा है..............

ॐ अर्यमा न तृप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नम:।ॐ मृर्त्योमा अमृतं गमय||
अर्थात, अर्यमा पितरों के देव हैं, जो सबसे श्रेष्ठ है उन अर्यमा देव को प्रणाम करता हूँ ।

हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम है . आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसका अर्थ है कि हम पूरे वर्ष भर अपने देवों को समर्पित अनेकों पर्वों का आयोजन करते हैं, लेकिन हममे से बहुत लोग यह महसूस करते है की हमारी प्रार्थना देवों तक नही पहुँच प़ा रही है। हमारे पूर्वज देवों और हमारे मध्य एक सेतु का कार्य करते हैं,और जब हमारे पितृ हमारी श्रद्धा, हमारे भाव, हमारे कर्मों से तृप्त हो जाते है हमसे संतुष्ट हो जाते है तो उनके माध्यम से उनके आशीर्वाद से देवों तक हमारी प्रार्थना बहुत ही आसानी से पहुँच जाती है और हमें मनवांछित फलों की शीघ्रता से प्राप्ति होती है ।

पित्तरों का सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण यह अपने परिजनों स्वजनों को सतर्क करती रहती है तथा तमाम कठनाइयों को दूर कराकर उन्हें सफलता भी दिलाती है। समान्यतः यह सर्वसाधारण को अपनी उपस्थिति का आभास भी नहीं देते है परन्तु उपर्युक्त मनोवृर्ति एवं व्यक्तित्व को देखकर यह उपस्थित होकर भी सहयोग एवं परामर्श देते है। पित्तरों का उद्देश्य ही अपने वंशजों को पितृवत स्नेह दुलार सहयोग एवं खुशियां प्रदान करना है संसार में तमाम उदाहरण उपलब्ध है जब इन्होंने दैवीय वरदान के रूप में मदद की है।

पित्तरों के प्रति श्रद्धा भाव

पित्तर अपने कुल से मात्र अपने प्रति श्रृद्धा अपना स्मरण अपना आदर तथा अपने प्रति उचित संस्कार की ही अपेक्षा रखते है और यह भी सत्य है कि उनका श्राद्ध करने उनके नाम से दान धर्म करने संस्कार करने स्मारक आदि बनाने का पुण्य फल एवं यश करने वाले को ही प्राप्त होता है तथा उसका मात्र कुछ अंश ही हमारे पित्तरों के पास पहुँचता है जो करता है वही भरता है परन्तु हमारे पित्तर जब यह देखते है कि मेरे कुल के लोग हमारे प्रति कृतज्ञता एवं उपकार का भाव प्रदर्शित कर रहे है तो उन्हें असीम सन्तोष एवं सुख का अनुभव होता है तथा वह अवसर आने पर उस
 उपकार का बदला अवश्य ही चुकाते है अपने प्रियजनों की सहायता के लिये वह हर सम्भव प्रयत्न करते है।
पित्तरों के प्रति श्रद्धा भाव रखने उन्हे सदभावना भरी श्रद्धान्जलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर उनकी सहायता लेने से पीछे नहीं रहना चाहिये।

शान्ति की कामना करनी चाहिये

परिजनों का मतृक के लिये लगातार रोने पीटने तथा शोक प्रदर्शन करने से उन्हें दुख होता है उनकी शान्ति में बाधा पड़ती है इसलिये उनकी यादों स्मृतियों क्रिया कलापों को सदा के लिये संजोकर रखकर हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिये उनकी शान्ति की कामना करनी चाहिये परन्तु मतृक के साथ संसारिक मोह बन्धन शीघ्र ही तोड़ लेना चाहिये यह मानना चाहिये कि उनका रूप अवश्य बदल गया है लेकिन उनका आशीर्वाद सदैव आपके साथ है।

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