श्राद्ध श्रद्धा शब्द से बना है,श्राद्ध श्रद्धा शब्द से बना है। श्रद्धापूर्वक किये गये कर्म को श्राद्ध कहते है। पित्तरों का श्राद्ध करने से कुछ लाभ है अथवा नहीं इसका उत्तर है कि लाभ है अवश्य है और यह लाभ श्राद्ध करने वाले को अत्यधिक तथा पित्तरों को उसका सूक्ष्म अंश मिलता है जिससे वह अत्यधिक शक्ति, प्रसन्नता एवं सन्तोष का अनुभव करते हैं क्योंकि इस संसार में प्रत्येक जीव या आत्मा किसी ना किसी रूप में विद्यमान अवश्य रहती है। श्राद्ध के समय पित्तरों के द्वारा जो हमारे ऊपर उपकार हुये है उनका स्मरण करके उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं भावना जरूर व्यक्त करनी चाहिये।पित्तरों का श्राद्ध होता हैयह मान्यता है कि पित्तर पक्ष में जिस दिन हमारे पित्तरों का श्राद्ध होता है वह स्वयं भी वहाँ सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहते हैं तथा ब्राहमणों के साथ वायु रूप में भोजन करते है। महाभारत में एक प्रसंग है कि जब भीष्म जी अपने पिता महाराज शान्तनु का पिण्डदान करने लगे तो उनके सम्मुख साक्षात शान्तनु जी के दाहिने हाथ ने प्रकट होकर पिण्ड ग्रहण किया।रामायण के अनुसाररामायण के अनुसार जब मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम वन में अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे तब सीता जी ने श्राद्ध की समस्त सामग्रियां स्वयं अपने हाथ से तैयार की लेकिन जब ब्राहमणों को भोजन करने के लिये आमंत्रित किया गया तो वह कुटी में जल्दी से जा छुपी। बाद में जब भगवान राम ने सीता जी से उनकी परेशानी एवं छुपने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा मैंने उन ब्राहमणों में आपके पिता महाराज दशरथ जी के दर्शन किये है, उनके सम्मुख मैं सदैव आभूषणों से सुशोभित रही हूँ वह कैसे मुझे इन कपड़ों में बिना आभूषणों, पसीने मैल से सना हुआ देख पाते।
श्राद्ध श्रद्धा शब्द से बना है। श्रद्धापूर्वक किये गये कर्म को श्राद्ध कहते है। पित्तरों का श्राद्ध करने से कुछ लाभ है अथवा नहीं इसका उत्तर है कि लाभ है अवश्य है और यह लाभ श्राद्ध करने वाले को अत्यधिक तथा पित्तरों को उसका सूक्ष्म अंश मिलता है जिससे वह अत्यधिक शक्ति, प्रसन्नता एवं सन्तोष का अनुभव करते हैं क्योंकि इस संसार में प्रत्येक जीव या आत्मा किसी ना किसी रूप में विद्यमान अवश्य रहती है। श्राद्ध के समय पित्तरों के द्वारा जो हमारे ऊपर उपकार हुये है उनका स्मरण करके उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं भावना जरूर व्यक्त करनी चाहिये।
पित्तरों का श्राद्ध होता है
यह मान्यता है कि पित्तर पक्ष में जिस दिन हमारे पित्तरों का श्राद्ध होता है वह स्वयं भी वहाँ सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहते हैं तथा ब्राहमणों के साथ वायु रूप में भोजन करते है। महाभारत में एक प्रसंग है कि जब भीष्म जी अपने पिता महाराज शान्तनु का पिण्डदान करने लगे तो उनके सम्मुख साक्षात शान्तनु जी के दाहिने हाथ ने प्रकट होकर पिण्ड ग्रहण किया।
रामायण के अनुसार
रामायण के अनुसार जब मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम वन में अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे तब सीता जी ने श्राद्ध की समस्त सामग्रियां स्वयं अपने हाथ से तैयार की लेकिन जब ब्राहमणों को भोजन करने के लिये आमंत्रित किया गया तो वह कुटी में जल्दी से जा छुपी। बाद में जब भगवान राम ने सीता जी से उनकी परेशानी एवं छुपने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा मैंने उन ब्राहमणों में आपके पिता महाराज दशरथ जी के दर्शन किये है, उनके सम्मुख मैं सदैव आभूषणों से सुशोभित रही हूँ वह कैसे मुझे इन कपड़ों में बिना आभूषणों, पसीने मैल से सना हुआ देख पाते।
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