दोष जो पित्तरों से सम्बन्धित होता हैवह दोष जो पित्तरों से सम्बन्धित होता है पितृदोष कहलाता है। यहाँ पितृ का अर्थ पिता नहीं वरन् पूर्वज होता है। ये वह पूर्वज होते है जो मुक्ति प्राप्त ना होने के कारण पितृलोक में रहते है तथा अपने प्रियजनों से उन्हे विशेष स्नेह रहता है। श्राद्ध या अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड ना किये जाने के कारण या अन्य किसी कारणवश रूष्ट हो जाये तो उसे पितृ दोष कहते है।विश्व के लगभग सभी धर्मों में यह माना गया है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की देह का तो नाश हो जाता है लेकिन उनकी आत्मा कभी भी नहीं मरती है। पवित्र गीता के अनुसार जिस प्रकार स्नान के पश्चात् हम नवीन वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार यह आत्मा भी मृत्यु के बाद एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है।हमारे पित्तरों को भी सामान्य मनुष्यों की तरह सुख दुख मोह ममता भूख प्यास आदि का अनुभव होता है। यदि पितृ योनि में गये व्यक्ति के लिये उसके परिवार के लोग श्राद्ध कर्म तथा श्रद्धा का भाव नहीं रखते है तो वह पित्तर अपने प्रियजनों से नाराज हो जाते है।पित्तरों के पास आलौकिक शक्तियां होती हैसमान्यतः इन पित्तरों के पास आलौकिक शक्तियां होती है तथा यह अपने परिजनों एवं वंशजों की सफलता सुख समृद्धि के लिये चिन्तित रहते है जब इनके प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक कर्म नहीं किये जाते है तो यह निर्बलता का अनुभव करते है तथा चाहकर भी अपने परिवार की सहायता नहीं कर पाते है तथा यदि यह नाराज हो गये तो इनके परिजनों को तमाम कठनाइयों का सामना करना पड़ता है।पितृ दोष होने पर व्यक्तिपितृ दोष होने पर व्यक्ति को जीवन में तमाम तरह की परेशानियां उठानी पड़ती है जैसे घर में सदस्यों का बिमार रहना मानसिक परेशानी सन्तान का ना होना कन्या का अधिक होना या पुत्र का ना होना पारिवारिक सदस्यों में वैचारिक मतभेद होना जीविकोपार्जन में अस्थिरता या पर्याप्त आमदनी होने पर भी धन का ना रूकना प्रत्येक कार्य में अचानक रूकावटें आना सर पर कर्ज का भार होना सफलता के करीब पहुँचकर भी असफल हो जाना प्रयास करने पर भी मनवांछित फल का ना मिलना आकस्मिक दुर्घटना की आशंका तथा वृद्धावस्था में बहुत दुख प्राप्त होना आदि। बहुत से लोगों की कुण्डली में कालसर्प योग भी देखा जाता है वस्तुतः कालसर्प योग भी पितृ दोष के कारण ही होता जिसकी वजह से मनुष्य के जीवन में तमाम मुसीबतों एवं अस्थिरता का सामना करना पड़ता है।⇐तर्पण का महत्वहिन्दु धर्म शास्त्रों में- वसु, आदित्य और रुद्र इन तीन देवताओं को क्रमशः पितृ, पितामह और प्रपितामह का पोषण प्रतिनिधि माना है। हमारे विवाह में भी गात्रोच्चारण में पितृ, पितामह, प्रपितामह इन तीनों का ही उल्लेख होता है।येन पितुः पितरो ये पितामहास्तेभ्यः पितृभ्योनमसा विधेम।अर्थात् पितृ, पितामह, प्रपितामाहों को हम श्राद्ध से तृप्त करते हैं।त्रयाणामुदकं कार्य त्रिषु पिंडः प्रवर्तते।चतुर्थः सम्प्रदातैषां पंचमो नापि विद्यते॥अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह इन तीनों का श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान होता है। चौथा श्राद्धकर्ता स्वयं यजमान होता है, और यहाँ पर पाँचवें की कोई सम्भावना ही नहीं है।तिल और पानी की जलांजली के माध्यम से हम अपने पित्रों को संतुष्ट करते हुए उनको और ऊंचे स्तर पर पहुंचा सकते हैं।तर्पण में हम उन्हें मंत्रों के साथ पानी और तिल की पेशकश करते हैं तर्पण जो उन्हें बहुत पसंद है और वह शीघ्रता से प्रसन्न हो जाते है ।महाभारत,आदि पर्व, 74.39 मे लिखा हैपुन्नाम्नॊ नरकादयस्मात्पितरम् त्रायते सुत:तस्मात्पुत्र इति प्रॊक्त: स्वयमॆव स्वयम्भुवाबेटा पिता को पुत नाम का नरक से बचाता है,इसलिए उसे स्वयंभु भगवान ने पुत्र नाम रखा था।हमारे पूर्वजों की मौत के बाद हमें उनकी आगे की यात्रा के बारे में कुछ भी पता नहीं होता है, वे कहाँ, किस रूप में है, उन्होंने जन्म लिया है या नहीं, जन्म लिए है तो कहाँ किसी को कुछ भी पता नहीं होता है, लेकिन यह हमारा कर्तव्य है की हम उन्हें जीवित भी खुश रखें और उनकी मृत्यु के बाद भी। पितृ तर्पण एक अद्भुत मौका है जिसमें देवताओं, वसु, रुद्र और आदित्य,चाहे हमारे पितृ किधर भी किसी भी रूप में हो, उनको सूक्ष्म माध्यम से हमारे जल और तिल को पित्रों के पास उत्तम रूप मे पहुंचा देते हैं।चूँकि पितरों को भी पोषण की जरूरत है। इसलिए जब हम उनको तर्पण देते हैं,वे संतुष्ट हो जाते हैं और हमें सुख,दौलत और सत संतति की आशीर्वाद देते हैं। और जब वे अच्छाई करते हैं,तब उसके हिसाब से उनको भी ऊंचाई मिल जाती है।तर्पण करने से पहले कुछ भी नहीं खाना चाहिए. उस दिन के रात में, किसी भी उपवास खाना खाना चाहिए|वैसे ही तिथि के पहले दिन की रात मे भी उपवास का खाना लेना है।प्रतिदिन तर्पण के दिन की सुबह में गीले किए हुये और सूखे धोती / कपड़ा पहनना चाहिए. यदि संभव हो तो पिछली रात मे धोती को धो के एक स्थान पर लटकाए जिधर कोई नहीं छुए।तर्पण करने से व्यक्ति के जन्म के आरंभ से तर्पण के दिन तक जाने अनजाने किए गए पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं।"समयानुसार श्राद्ध, तर्पण करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।"पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। तर्पण करते समय एक पीतल के बर्तन में जल में गंगाजल , कच्चा दूध, तिल, जौ, तुलसी के पत्ते, दूब, शहद और सफेद फूल आदि डाल कर फिर एक लोटे से पहले देवताओं, ऋषियों, और सबसे बाद में पितरों का तर्पण करना चाहिए।कुश तथा काला तिल भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए हैं तथा चांदी भगवान शिव के नेत्रों से प्रकट हुई हैं। गाय का दूध और गंगाजल का प्रयोग श्राद्ध के कर्मफल को कई गुना तक बढ़ा देता है। तुलसी बहुत ही पवित्र मानी जाती है अत: इसके प्रयोग से पितृ अत्यंत प्रसन्न होते हैं।तर्पण में कुशा (पवित्री) का प्रयोग अनिवार्य है। दो कुशा से बनाई हुई पवित्री (अंगूठी) दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली तथा तीन कुशाओं से मिलाकर बनाई गई पवित्री बाईं अनामिका में धारण करें, यह आप खुद भी बना सकते या बाज़ार में किसी भी पूजा की दुकान में मिल जाता है।पितरों के तर्पण में सोना-चांदी, कांसा या तांबे के पात्र का ही उपयोग करना चाहिए। लेकिन लौह के पात्र अशुद्ध माने गए हैं। अत: यथासंभव लोहे के बर्तनो का प्रयोग नहीं ही करना चाहिए ।तर्पण, श्राद्ध में तिल और कुशा सहित जल हाथ में लेकर देवताओं का तर्पण करते समय पूर्व दिशा की तरफ मुँह करके देवताओं का नाम लेकर एक एक बार तपरान्तयामि बोलते हुए उन्हें मध्यमा ऊँगली से जल गिराते हुए जलांजलि दें ।ऋषियों का तर्पण करते समय उत्तर दिशा की तरफ मुँह करके दो बार तपरान्तयामि, तपरान्तयामि बोलते हुए उन्हें मध्यमा ऊँगली के दोनों तरफ से जल गिराते हुए जलांजलि दें ।इसके पश्चात दक्षिण दिशा की तरफ मुँह करके सबसे पहले भगवान यमराज फिर चित्रगुप्त का नाम लेते हुए और उसके बाद अपने सभी पितरों का नाम लेते हुए सबके नाम के बाद तीन बार तपरान्तयामि, तपरान्तयामि, कहकर पितृ तीर्थ यानी अँगूठे के बगल की उँगली और अंगूठे के बीच से जलांजलि देते हुए जल को धरती में किसी बर्तन में छोड़ने से पितरों को तृप्ति मिलती है।तर्पण करते समय पहले अपने ददिहाल के सभी पितरों उसके बाद अपने ननिहाल के सभी पितरों का नाम लेते हुए उनका तर्पण करें, फिर अपने वंश के भूले हुए, पितृ जिन तक आपका तर्पण पहुँचना चाहिए उन सभी पितरों को एक साथ जलांजलि देते हुए उनका तर्पण करें ।अंत में पूर्व की ओर मुंह करके शुद्ध जल से सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें।ध्यान रहे तर्पण का जल तर्पण के बाद किसी वृक्ष की जड़ में चड़ा देना चाहिए वह जल इधर उधर बहाना नहीं चाहिए ।हमारे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार तर्पण का जल सूर्योदय से आधे प्रहर तक अमृत, एक प्रहर तक शहद , डेढ़ प्रहर तक दूध और साढ़े तीन प्रहर तक जल रूप में हमारे पितरों को प्राप्त होता है। अत: हमें सुबह सवेरे ही तर्पण करना चाहिए ।हमारे पूर्वज अपने वंशजों से अपने प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता एवं स्मरण की अपेक्षा रखते है । और यह सभी व्यक्तियों का अनिवार्य कर्तव्य है कि वह अपने पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्यों का निश्चित ही पालन करें । जिस भी व्यक्ति के माता पिता जीवित है यह उसका दायित्व है कि वह अपने माता पिता को उनके पूर्वजों के प्रति किये जाने वाले कर्मों के बारे में बताये । याद रखिये यदि कोई व्यक्ति जान बूझ कर अपने पूर्वजों का श्राद्ध, पितृ पक्ष में प्रतिदिन तर्पण नहीं करता है तो वह घोर नरक का भागी होता है, और जिस भी व्यक्ति को इन कर्म कांडों के बारे में ज्ञान है लेकिन वह अन्य लोगो को इसके बारे में नहीं बताते है वह भी पाप के भागी होते है । अत: यह हम सभी की जिम्मेदारी है की हम समाज के सभी लोगो को पितरों के प्रति कर्तव्यों के बारे में अवश्य ही बताएं ।
दोष जो पित्तरों से सम्बन्धित होता है वह दोष जो पित्तरों से सम्बन्धित होता है पितृदोष कहलाता है। यहाँ पितृ का अर्थ पिता नहीं वरन् पूर्वज होता है। ये वह पूर्वज होते है जो मुक्ति प्राप्त ना होने के कारण पितृलोक में रहते है तथा अपने प्रियजनों से उन्हे विशेष स्नेह रहता है। श्राद्ध या अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड ना किये जाने के कारण या अन्य किसी कारणवश रूष्ट हो जाये तो उसे पितृ दोष कहते है। विश्व के लगभग सभी धर्मों में यह माना गया है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की देह का तो नाश हो जाता है लेकिन उनकी आत्मा कभी भी नहीं मरती है। पवित्र गीता के अनुसार जिस प्रकार स्नान के पश्चात् हम नवीन वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार यह आत्मा भी मृत्यु के बाद एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है। हमारे पित्तरों को भी सामान्य मनुष्यों की तरह सुख दुख मोह ममता भूख प्यास आदि का अनुभव होता है। यदि पितृ योनि में गये व्यक्ति के लिये उसके परिवार के लोग श्राद्ध कर्म तथा श्रद्धा का भाव नहीं रखते है तो वह पित्तर अपने प्रियजनों से नाराज हो जाते है। पित्तरों के पास आलौकिक शक्तियां होती है समान्यतः इन पित्तरों के पास आलौकिक शक्...